
प्रताप सिंह पटियाल
अवैध खनन व अतिक्रमण तथा दिशाहीन निर्माण का शिकार हो रहे पहाड़ों पर भूस्खलन स्थलों की बढ़ती तादाद के कारणों पर वैज्ञानिक मंथन की जरूरत है। बहरहाल कुदरत के आक्रोश से उपजी आपदाओं से सबक लेना होगा, अन्यथा पहाड़ों का तल्ख मिजाज पूरी कायनात के लिए जुल्मत का दौर साबित होगा…
‘स्थावराणां हिमालय:’, इस प्रसंग का उल्लेख श्रीमद्भागवदगीता के दशवें अध्याय के 25वें श्लोक में हुआ है। इसमें ‘श्रीकृष्ण’ ने कहा है कि ‘मैं स्थिर रहने वालों में हिमालय हूं’। सुखमय जीवन के लिए वेदों में हिमालय की आराधना का उल्लेख भी हुआ है। महाकवि कालीदास ने अपने महाकाव्य ‘कुमारसंभव’ में हिमालय को ‘धरती का मानदंड’ तथा ‘दुनिया की छत व आश्रय’ बताया था। अनादिकाल से पहाड़ आध्यात्मिक चेतना की पुण्यभूमि रहे हैं। प्रकृति के प्रबल उपासक रहे कई ऋषि मुनियों की तपोस्थली, भक्ति व अनुसंधान का केन्द्र पर्वतराज हिमालय ही रहा है। मगर बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं व अंधाधुंध निर्माण कार्य पहाड़ों की स्थिरता को चुनौती पेश कर रहे हैं। सैकड़ों धार्मिक स्थलों के अलावा कई वैदिक ऋषियों के सदियों पुराने आश्रम आज भी देवभूमि हिमाचल के पहाड़ों पर मौजूद हैं।
पौराणिक ग्रंथों में ‘मरूतगणों’ को पहाड़ों का देवता कहा गया है। इसीलिए सनातन संस्कृति में पहाड़ों को आस्था की दृष्टि से देखा जाता है। जन्नत का एहसास कराने वाले पहाड़ों पर प्राकृतिक संसाधनों के अथाह भंडार मौजूद हैं। भागदौड़ भरी जीवनशैली में सुकून के लम्हें बिताने के लिए पर्यटकों का आकर्षण पहाड़ ही बनते हैं। अपनी सैकड़ों पारंपरिक संस्कृतियों को समेटे पहाड़ आध्यात्मिक मूल्यों, शांतिपूर्ण माहौल, स्वच्छ वातावरण तथा स्वस्थ जीवनशैली के लिए भी विख्यात हैं। कई प्रजातियों के वन्यजीवों व जंगली जानवरों का कुदरती आशियाना भी पहाड़ हैं। अपनी मजबूती व बुलंदी के लिए विख्यात पहाड़ों का सामरिक महत्त्व बेहद अहम है। देश रक्षा के मद्देनजर पहाड़ सरहदों के पास्बां बनकर एक मजबूत सेना व मुस्तैद सैनिक का किरदार भी अदा करते हैं। सन् 1962 की भारत-चीन जंग में हिमाचल के पहाड़ चीन की पेशकदमी के आगे अभेद्य रक्षा कवच बन गए थे। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कई राष्ट्रीय राजमार्ग पर्वतीय क्षेत्रों से होकर गुजरते हैं, लेकिन मौजूदा दौर में हिमालय की आगोश में बसे हिमाचल के पहाड़ों पर रंजो-गम की स्याही सूखने का नाम नहीं ले रही है। बीते कुछ वर्षों से भौतिकतावादी प्रवृत्ति तथा विकास का नकाब ओढ़ चुकी व्यवस्था की पहाड़ों के साथ एक जद्दोजहद चल रही है। आधुनिक मशीनीकरण के प्रहारों से पर्यावरण के दोहन के साथ प्राकृतिक संसाधनों का वजूद मिटाकर तथा बारूदी धमाकों से पहाड़ों को गिराकर निर्माण कार्यों में मशगूल व्यवस्था जब कुछ हद तक कामयाबी हासिल कर लेती है तो प्रकृति विनाश के उस खेल को चहुंमुखी विकास की संज्ञा दी जाती है। परन्तु प्रकृति जब विकराल रूप धारण करके पलटवार करती है तो व्यवस्थाओं की नाकामी तथा इनसानी गुस्ताखियों को छुपाने के लिए कुदरत के आक्रोश भरे परिणाम को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है। पहाड़ों की खूबसूरती को इस आधुनिक विकास की नजर लग चुकी है। मशीनीकरण का यही आत्मघाती विकास पर्वतों के दरकने का नुक्ता-ए-आगाज साबित हो रहा है। हर दरकते पहाड़ की तहरीर एक अफसोसजनक अफसाना लिख रही है। पहाड़ हादसों की वजह बन रहे हैं।
निर्माण कार्यों में बरती जा रही लापरवाही से उपजी दुर्घटनाओं का खामियाजा आम लोग भुगत रहे हैं। भौतिक विकास के खुमार में प्रकृति के सिद्धांतों को नजरअंदाज करना आपदाओं को दावत साबित हो रहा है। लाखों आबादी की प्यास बुझाने वाली कई मुकद्दस नदियों का उद्गम स्थल भी हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में मौजूद है। कई पड़ोसी राज्यों को रौशन करने वाली पनबिजली परियोजनाएं हिमाचल के पहाड़ों पर चल रही हैं। सैकड़ों लोगों की आजीविका बन चुके पर्यटन उद्योग के अलावा पैराग्लाइडिंग, एडवेंचर व टै्रकिंग जैसी गतिविधियों का संचालन भी पहाड़ों पर होता है। देश के कुछ पर्यावरणविदों की कोशिशों से उत्तराखंड राज्य में नौ सितंबर 2010 को ‘हिमालय दिवस’ मनाने की शुरुआत हुई थी ताकि पहाड़ों के संरक्षण की जागरूकता के लिए लोगों का ध्यान आकर्षित किया जा सके। पहाड़ों की अहमियत को समझते हुए ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ ने ग्यारह दिसंबर का दिन ‘अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस’ के रूप में मुकर्रर किया है। पेड़-पौधे जंगल व बर्फ से ढकी हसीन वादियों, पहाड़ों का श्रृंगार होते हैं। मगर बेतरतीब तरीके से बढ़ रहा शहरीकरण, धुआं उगलते उद्योग तथा गगनचुंबी मीनारों का अंधाधुंध निर्माण विकास कार्यों का पैमाना बनकर पहाड़ों की जीनत बन रहे हैं। पहाड़ों पर पर्यटकों की भारी भीड़ के साथ बढ़ती आबादी का बोझ, भूस्खलन, सैलाब जैसी चुनौतियों के साथ इनसानी दखलअंदाजी से प्रकृति के हो रहे खिलवाड़ तथा अनियोजित विकास के कहर से पहाड़ बिखर रहे हैं। हाल ही में जोशीमठ के दरकते पहाड़ों की आपदा ने जो पैगाम दिया था, उसे भी गंभीरता से नहीं लिया गया। अत: पहाड़ों का दिलशाद चेहरा बिगाडऩे वाले अंधाधुंध विकास कार्यों पर पर्यावरणविदों की हिदायतों को अमल में लाना होगा। पहाड़ों पर निर्माण कार्यों की संगे बुनियाद से पूर्व भू-वैज्ञानिकों से गहन मशविरा होना चाहिए। पहाड़ों पर निवास करने वाले स्मस्त जीव-जन्तु व मानव सभ्यता की सुरक्षा के लिए आधुनिक विकास से पहले पहाड़ों का सुरक्षित रहना जरूरी है।
स्मरण रहे इनसानी ऐब-ओ-हुनर को खामोशी से देखने वाली कुदरत अपने स्वाभिमान का नेतृत्व खुद करती है। प्रकृति अपने साथ हो रहे खिलवाड़ का एहतेजाज लफ्जों से नहीं करती, बल्कि एक निश्चित वक्त पर आईने की तरह चेहरे की कैफियत को पूरी तफसील से ब्यान करती है। विनाश को अंजाम देने वाले निर्माण कार्यों की सख्त मुखालफत होनी चाहिए। अवैध खनन व अतिक्रमण तथा दिशाहीन निर्माण का शिकार हो रहे पहाड़ों पर भूस्खलन स्थलों की बढ़ती तादाद के कारणों पर वैज्ञानिक मंथन की जरूरत है। बहरहाल कुदरत के आक्रोश से उपजी आपदाओं से सबक लेना होगा, अन्यथा अपने जमाल से पूरे ब्रह्मांड को अफरोज करने वाले पहाड़ों का तल्ख मिजाज पूरी कायनात के लिए जुल्मत का दौर साबित होगा। पर्वतीय क्षेत्रों में सुरक्षित जीवन जीने के लिए पहाड़ों को महफूज रखने की कवायद तेज करनी होगी। हर बरसात में पुलों व सडक़ों का सैलाब में बह जाना चिंताजनक विषय है।
प्रताप सिंह पटियाल (स्वतंत्र लेखक)